रजांगला लड़ाई - 1962 || Rezangla Battle – 1962 ||
चुशुल - रेजांगला की घाटी में भारतीय सेनाने चीनी सेना से निपटने के लिए कुछ Plattuns (टुकड़िया-बटालियंस) तैनात की थी जिन में सी-13 कमाऊ बटालियन चार्ली कंपनी नामक एक टुकड़ी भी थी, जिस में कुल 120 जवान थें जिन में से 114 जवान अहीर जाति के थे, अहीर जिन्हे हम आहीर, यदुवंशी और यादव से भी जानतें हैं जो की राजस्थान के अरवल और हरियाणा के गुरगाउ, रेवाड़ी, नारनौल और महेन्द्रगढ़ जिल्ले के अहीरवास क्षेत्र के रहने वाले थे | जिनकी अगुआई मेजर सैतानसिंह कर रहे थे |
उसी दौरान 18th नवम्बर 1962 की सूबह होने से पेहले भारी बर्फ-बारी के बिच लगभग साढ़े तीन बजे के बाद अपार गोलाबारूद और तोपखानों के साथ लगभग 5000 से 6000 चीनी सैनिको की पिपल्स लिब्रेशन आर्मी ने रेजांगला चुशूल पर हमला कर दिया |
हालाकी इस हमले का अंदेशा पहले से ही था, जब की भारतीय जवानो की इस प्लाटून के पास बहुत ही सिमित मात्रा में गोलाबारूद और राइफलें थी | इस कारवाही का सामना करने के लिये मेजर सैतानसिंह ने भारतीय सेना से वायरलेस रेडियो से मदद की गुहार की, परंतु भारतीय सेना मदद करने मैं असमर्थ थी और साथ ही में उन्हें वापस लौट आनेका आदेश भी दिया गया | पर ये जवानो ने हार ना मानने की ठानी और हारे हुई लड़ाई को जितने के लीये कसम ली की आखरी आदमी, आखरी दौर और आखरी साँस तक लड़ेंगे पर हम पीछे नहीं हटेंगे |
ये लड़ाई केवल गोला बारूद और राइफल से ही नहीं लड़ी गयी थी, किन्तु छुरे-चाकू और पथ्थरों से भी लड़ी गयी थी | यहाँ तक की आखिर मैं हमारे जवानो ने हाथापाई की लड़ाई भी की थी |
भारत ये लड़ाई केवल भारतीय आर्मी के जवानो की बहादुरी और ईच्छाशक्ति से लड़ रहा था | क्योकि उस समय भारत के पास, आर्मी के जवानो को देने के लिए ऐसे कोई भी अत्याधुनिक हथियार या गोलाबारूद नहीं थे जो चीनी सैनिको के हमले का सामना कर सके | यहाँ तक की हमारी बंदु के भी चीनी राइफलों का सामना कर ने में असमर्थ थी और तो और हमारे जवानो के पास ऐसे कपडे भी नहीं थे जो लदाख की ठिठुरती और जम देने वाली ठंड में जवानो को राहत पंहुचा सके |
भारत ये लड़ाई केवल भारतीय आर्मी के जवानो की बहादुरी और ईच्छाशक्ति से लड़ रहा था | क्योकि उस समय भारत के पास, आर्मी के जवानो को देने के लिए ऐसे कोई भी अत्याधुनिक हथियार या गोलाबारूद नहीं थे जो चीनी सैनिको के हमले का सामना कर सके | यहाँ तक की हमारी बंदु के भी चीनी राइफलों का सामना कर ने में असमर्थ थी और तो और हमारे जवानो के पास ऐसे कपडे भी नहीं थे जो लदाख की ठिठुरती और जम देने वाली ठंड में जवानो को राहत पंहुचा सके |
ये उन जवानो की बहादुरी और अदम्य साहस ही था जिन्हो ने लदाख को बचाने के लिये चीनी सैनिको से आखरी साँस तक यहाँ तक की बिना हथियारो से लड़ते हुए अपनी जान माँ भारती के लिये न्यौच्छावर कर दी और उन्ही की बदौलत आज लदाख भारत के कब्जे में हैं |
ये लड़ाई को हंमेशा के लिये याद रख ने के लिये चुसूल के लद्दाख में एक युद्ध स्मारक बनाया गया हैं जिन पर अंग्रेजी में लिखा हैं जिसका अनुवाद हिंदी मैं कुछ इस तरह हैं ;
इस से शानदार मौत और क्या हो सकती हैं,
की सबसे भयानक परिस्थितिओ का सामना करते हुवे,
इन्सान अपने पूर्वजो की अस्थिओं,
और अपने देवताओ के मंदिरो के लिये वीरगति पा ले |
और इन्ही 120 सैनिको के नाम पर हरियाणा राज्य के रेवाड़ी शहर में आये धारुहेरा चौक के पास " आहीर धाम मेमोरियल " और गुडगाउ में भी युद्ध स्मारक हैं जो की हमारे जवानो की बहादुरी और अदम्य सहस की सौर्य गाथा के प्रतिक हैं |
जय हिन्द || वंदे मातरम ||
जय हिन्द || वंदे मातरम ||
No comments:
Post a Comment